Thursday, May 31, 2007

सुबह-ओ-शाम

क्या-क्या ख़याल जी से गुज़रते हैं सुबह-ओ-शाम
ज़ख़्म नये दिल में उभरते हैं सुबह-ओ-शाम

सदिया गुज़र गयीं हैं तुम्हें बेवफ़ा हुए
हम याद तुम्हें आज भी करते हैं सुबह-ओ-शाम

रह-रह के ,चौंक-चौंक के मैं नींद से जागूं
बन-बन के मेरे सपने बिखरते हैं सुबह-ओ-शाम

जब-जब तेरी यादों की घटा दिल पे छाई है
बादल मेरी आँखों के बरसते हैं सुबह-ओ-शाम

पल-पल मैं देखता हूँ उठ के राह गुज़र को
नैना तेरे दीदार को तरसते हैं सुबह-ओ-शाम

मत पूछिए क्या आलम-ए-ख्वाब-ओ-उम्मीद है
अंगार से सीने में देहकते हैं सुबह-ओ-शाम

3 comments:

राजीव रंजन प्रसाद said...

नीरज जी
गज़ल तो आपने बहुत ही स्तरीय लिखी है, रवानगी और गहरायी से भरपूर। कुछ शेर विशेष पसंद आये, जैसे:
सदिया गुज़र गयीं हैं तुम्हें बेवफ़ा हुए
हम याद तुम्हें आज भी करते हैं सुबह-ओ-शाम

रह-रह के ,चौंक-चौंक के मैं नींद से जागूं
बन-बन के मेरे सपने बिखरते हैं सुबह-ओ-शाम

बधाई आपको।

*** राजीव रंजन प्रसाद

Udan Tashtari said...

अच्छी लगी रचना. बधाई.

परमजीत सिहँ बाली said...

नीरज जी, बहुत बढिया रचना लिखी है।