Wednesday, May 28, 2008

नींद क्यूं रात भर नही आती

कोई उमीद भर नही आती
कोई सूरत नज़र नही आती

मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यूं रात भर नही आती

आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पे हँसी नही आती

है कुछ ऐसी ही बात कि चुप हूँ
वरना क्या बात कर नही आती

काबे किस मूँह से जाओगे "गालिब"
शर्म तुमको मगर नही आती

Thursday, May 22, 2008

आँखों में आँसू नहीं आते

आँखों में आँसू नहीं आते
क्योंकि मैं जानता हूँ
तुम लौटकर आओगी ज़रूर
यह दिल तन्हा कहाँ है
इसमें यादें हैं तुम्हारी
तुम रहो कितने भी दूर

देखता हूँ तुम्हें
जब भी आँखें मूँद लेता हूँ
और कोई कहाँ है इनमें हुज़ूर
तुमसे प्यार किया है
यह दिल का सौदा है तुम्हीं से
क्यों न रहूँ थोड़ा मग़रूर

पास आने के दिन आ गये
धड़कनों में बेक़रारी है
दिल में सुरूर ही सुरूर
वादियों में चले मौसम हरे
डालियों पर फूल गुलाबी हैं
निगाह में भर गया है नूर

जादू-सा है फ़िज़ाओं में
खिल रहे हैं ख़्याल हर-सू
क्यों न आये तुम्हारा मज़कूर
दिल बहलता नहीं बातों से
यह कैसा सिलसिला है
चैन आये गर आये वह हूर

Tuesday, May 20, 2008

मेरी मोहब्बत क्या जाने

तू दिल कि हालत क्या जाने
मेरी मोहब्बत क्या जाने
मेरी रुह की गह’राई में
बस तेरी पर’छाई है
जिंन्दगी के खालिपन की
एक तू ही भर’पाई है
तू यादों की खुश’बू बन’के
आज मुझ पे छाई है
सांसो की तरह मेरी ध’ड़्कनों
में तू समाई है
तुझे दूर कैसे रखूँ अप’ने से
ये तो प्यार कर’ने की सज़ा है
जो हम’ने आप’से पाई है !!

कुछ मौसम सपने लगते है

शबनम के कतरो मे कैसे खिज़ा के रंग झलकते है
फूलो के चेहरो से खुशबू के मोती बिखरते है
हवाओ की रवानी से आती है सरगम कर रिमझिम
जब पानी की लहरो से वो अटखेलिया करती आती है
पैरो की कितारो मे फिर ठंडक बसाने आती है
जब सुरज से मिलकर शाम सुनहेरी हो जाती है
कुछ मौसम सपने लगते है कुछ मौसम अपने लगते है
पर दोस्त मिले तुम जैसा तो सब मौसम सच्चे लगते है
ज़िन्दगी की तन्हा लेहरो मे जो दोस्ती के मोती पिरोते है
वो फूलो की तरहा दिल की राहो को मेहकाते है

ये दिल

ये दिल उदास है बहुत

ये दिल उदास है बहुत कोई पैगाम ही लिख दो
तुम अपना नाम ना लिखो चलो गुमनाम ही लिख दो
मेरी किस्मत मे गम-ए-तन्हाई है लेकिन
तमाम उम्र ना लिखो मगर एक शाम ही लिख दो
ये जानता हूँ के उम्र भर तन्हा मुझको रहना है
मगर पल दो पल, घडी दो घडी मेरा नाम ही लिख दो
चलो हम मान लेते है सज़ा के मुस्ताहिक़ ठहरे
कोई इनाम ना लिखो, कोई इल्ज़ाम ही लिख दो

करके तन्हा हमें

वो न आया उसे न आना था
कर’के तन्हा हमें जलाना था
जिन’में चिड़ियों का ज़म’घट रह’ता
पेड़ आंगन में वो लगाना था
कुछ तो सेह’रा कि तिश्नगी जाती
एक दरिया येहां बहाना था
क्या उलझ’ना था फिर ज़माने से
जब कि किस्सा व’ही पुरना था
तेरे कुचे में आ गये वरना
हम फ़किरों का क्या ठिकाना था
वो हवायें भी सो गयीं
जिन’को तूफ़ां कोई उठाना था,,,,,,,,,