Monday, April 30, 2007

उलझन

इश्क़ के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं
ज़ख़्म कैसे भी हों, कुछ रोज़े मैं भर जाते हैं
ख्वाबों मैं अब कोई नही और हम भी नही
इतने रोए से आए हैं चुप छाप गुज़र जाते हैं
नर्म आवाज़, भोली सी बातें
पेहले बारिश मैं ही, सब रंग उतर जाते हैं
रास्ता रोके ख़री है वही उलझन कब से
कोई पूछे तो कहें क्या के किधर जाते हैं
अब तो हालत है मुसाफ़िर जैसी
ना कोई साथी है ना कोई मंज़िल
अकेले हे ना जाने किस धुन मैं चलते जाते हैं

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