Wednesday, April 25, 2007

ज़िंदगी मेरी

ज़िंदगी मेरी तो तनहाइयों का घेरा है
इस मैं तो बस उदसियों का बसेरा है

अब तो बस नाम की हे रह गई ज़िंदगी मेरी
इस पर तो अब मौत का हर पल ही पहरा है

अब मेरी परझाई भी मुझसे दूर होती जा रही है
ये दुनिया अब ओर भी अजीब होती जा रही है

मेरे महबूब ना ली मेरी ख़बर कई दिन से
क्या वो भी इस दुनिया की तरह मगरूर होती जा रही है

काश की वो कभी जान पाती की उसके बिन मेरी
ज़िंदगी मौत के ओर नज़दीक होती जा रही है

1 comment:

Rajput D said...
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