Monday, June 18, 2007

जल रहा है ये समा

जल रहा है ये समा,
जला जला सा ये आसमान .....
जली हैं कितनी अस्थियाँ
जलें हैं कितने आशियाँ
है दूर तक जला हुआ..
वो मेरा घर वो मेरा कारवाँ .....
झुलस रही है लाश ये
झुलसी सी क्यूं है प्यास ये..
ये राख के ढेर हैं ..
ये धुएँ सी क्यूं है हवा
गला क्यूं ये रुंध है ...
सामने क्यूं ये धुँध है
बुझे बुझे हैं दिल सभी
जले जले हैं शायद अभी.
जले हुए ये दिन हैं क्यूं??
जली जली ये क्यूं रात है
क्या हादसे खतम हुए
आग ही की क्यूं बात है
पलकों पर जो संभाले
वो सपने आज हैं जल रहे
कौन हैं वो लोग जो
इस राख को हैं मल रहे ???
जली हुई है आग ये,
जला ज़मीन का भाग ये
ये जल रहें हैं क्यूं भला????
ये जल रहें हैं क्यूं बता????

5 comments:

Satyendra Prasad Srivastava said...

नीरज, बहुत अच्छा लिखा है तुमने। बधाई हो। तुम और अच्छा लिख सकते है। उज्ज्वल है तुम्हारा भविष्य

ePandit said...

बहुत ही सुन्दर लिखा, हाँ यदि हर पैराग्राफ के बाद एक लाइन ब्रेक दे देते तो और बेहतर दिखता।

अभिनव said...

अच्छी लगी भाई आपकी कविता, हम तो राजेश जी के ब्लाग से आप तक पँहुचे हैं, उनको भी धन्यवाद।

Neeraj K. Rajput said...

सत्येंद्र प्रसाद जी हम तो अभी बच्चे हैं लिखते तो बस शोक के लिए हैं !

अभिनव जी, आपका बहुत सुक्रिया ओर राजेश जी का भी बहुत बहुत सुक्रिया !

Anonymous said...

जल रहा है ये समा,
जला जला सा ये आसमान .....
जली हैं कितनी अस्थियाँ
जलें हैं कितने आशियाँ
है दूर तक जला हुआ..
वो मेरा घर वो मेरा कारवाँ

यहां तक कविता मे व्‍यग्‍य भाव थे लेकिन आगे के भाग मे ये प्रशन चिन्‍ह के साथ कविता पर भी प्रशन निकल आता है। भाव एक से होने चाहिये ताकी पाठक आपके भाव समझ सके और उनका आनन्‍द उठा सके।