Monday, August 6, 2007

आप क बिग़ैर

अजब मुझ को लगती है ज़िंदगी आप क बिग़ैर,
खो गयी है मेरी हेर ख़ुशी आप क बिग़ैर,

हर पल ही उदास रहता है अब तो दिल मेरा,
होता नही कभी शाद अब कभी आप क बिग़ैर,

मैं कैसे लगाउ दिल ये और किसी से?,
कोई अच्छा नही है लगता जाना .... आप क बिग़ैर,

आप लौट आओ तो लौट आए हर ख़ुशी मेरी,
ज़िंदगी सज़ा बनी है आप क बिग़ैर,

काश आप समझ जाए कैसे डसती हैं तन्हाईयाँ,
एक पल में हज़ारों दर्द सहता हूँ आप क बिग़ैर !

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

नीरज जी,रचना बहुत भावपूर्ण और बढिया ढंग से लिखी है। बधाई।

Unknown said...

bahoot khuub niks..... bahoot aacha likha hai....