Sunday, May 17, 2009

उल्टी नगरी

उल्टी नगरी एक अनोखी, वस्तु जहाँ की उल्टी पुलटी.
उल्टी दुनिया उल्टा पर्वत्, उल्टे पेड़ चिमनिया उल्टी.
देती दूध चींटियाँ ख़्ररहे हल खींचे, चूहे हलवाहे.
पैसा दुर्लभ, सुलभ अशरफ़ी, भोजन सबको खाना चाहे.
दाड़ी मूंछ रखें औरतें, मर्द खिलाते घर मे बच्चे.
रहते लोगों मे मकान ही, झूठे जीते मरते सच्चे.
सर पर जूता पगड़ी पेरो में, मच्छ्रर की है बनी सवारी.
दिंन मे चाँद चमकता, सूरज सारी रात करे उजियारा.
जलता पानी, आग बुझाती, चलते सर के बल नर नारी.
छपपर तो ज़मीन पर रहता, घोड़ा पीछे आगे गाड़ी.
नाव चलाते मरुस्थलों मे, सांझ जागते सोते तड़के.
पाँच बरस तक रहते बूढ़े, साठ बरस मे बनते लड़के.
सुनती आँख कान देखते, नीक बाबू कुर्सी उपर.
चद जाती पहाड़ पर नदियाँ, सिंधु झील से निकल निकल कर.
एक बात का वहन बड़ा सुख, पड़ते गुरु पदाते चेले.
मौज उड़ाते बेथे भिखारी, शहंशाह चलाते ठेले.
रही ज्यू के टयूँ रह जाते और चला करती है डगरी.
उल्टी सारी वस्तु जहाँ की देखी ऐसी उल्टी नगरी.

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