Thursday, May 6, 2010

ग़म में हंसने वालो को कभी रुलाया नहीं जाता!

कहाँ रोज रोज मिलती है वजह यूँ इस तरह पास हमारे आने की,
कुछ देर और ठहरो कि आँखों ने इजाजत नहीं दी है अभी जाने की

क्या जरूरत है शर्म-ओ-हया को, लबों पर इस तरह पहरा बिठाने की,
ग़र आँखों की जुबां समझो तो बात नहीं कुछ और तुम्हें बताने की

कैद कर लेंगे इन आँखों में हम उनको जिन्हें आदत थी छुप जाने की,
आखिर कुछ तो सजा मिलनी ही चाहिए चुपचाप दिल में उतर आने की

तस्सवुर में खोई रहती थी ये आँखें, फुरसत कहाँ थी इन्हें छलक जाने की,
क्यों फिर अब भर आई हैं, जबसे खबर मिली है चाँद निकल आने की

तन्हाइयों में तो सुना करते थे हम आवाज़ें सिर्फ वक्त के करहाने की,
पंख से क्यों लग गये हैं उसको, आहट जब से हुई है उनके आने की

धड़कने खामोश हैं, साँसें थम गई हैं वजह क्या है जुबां के लड़खड़ाने की,
कुछ तो कहो इरादा-ए-कत्ल है या कि आदत है तुम्हें यूँ ही मुस्कुराने की