कबीर अगर तुम न हुए होते
होते हम कितने निर्लज्ज और निष्ठुर
तुम्हारी वाणियां और साखियां
बार-बार स्मरण कराती हैं
आदमी का कद
कितना ओछा हो सकता है.
कबीर अगर तुम न हुए होते
तो होता केवल
मिथ्या जगत
तुम ही हो बटरोही
बनकर मार्ग दर्शक
आज भी अटल खड़े, अड़े हो
अड़ी हैं तुम्हारी
उलटबांसियां
सुलटा रही हैं दुष्कर्म
और दिवा स्वप्नों का
अंधेरा
हटा रही हैं पथ के कंकड़.
कबीर अगर तुम न हुए होते
नहीं होते गांधी
सत्य की लड़ाई के
योद्धा कहां खड़े होते
इस निरही जन जंगल में
कबीर अगर तुम न हुए होते
यह संसार उलझा ही रहता
उलट-पुलट हुआ रहता
मर्यादाओं को भंग करता
भीतर के तीरथ को जाने,
कितना और तिरोहित करता
कबीर अगर तुम न हुए होते
धागे कितने टूटे होते
रंग कितने बिखरे होते
ढाई आखर अपने पर रोते
कबीर अगर तुम न हुए होते
कुटिया गरीब की सूनी होती
सन्नाटा, विक्षोभ, वीराना
हर घर पर छाया होता
अगन लगी होती हर घर में
कौन बुझाने वाला होता।
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फारूक आफरीदी
Thursday, May 28, 2009
Sunday, May 17, 2009
उल्टी नगरी
उल्टी नगरी एक अनोखी, वस्तु जहाँ की उल्टी पुलटी.
उल्टी दुनिया उल्टा पर्वत्, उल्टे पेड़ चिमनिया उल्टी.
देती दूध चींटियाँ ख़्ररहे हल खींचे, चूहे हलवाहे.
पैसा दुर्लभ, सुलभ अशरफ़ी, भोजन सबको खाना चाहे.
दाड़ी मूंछ रखें औरतें, मर्द खिलाते घर मे बच्चे.
रहते लोगों मे मकान ही, झूठे जीते मरते सच्चे.
सर पर जूता पगड़ी पेरो में, मच्छ्रर की है बनी सवारी.
दिंन मे चाँद चमकता, सूरज सारी रात करे उजियारा.
जलता पानी, आग बुझाती, चलते सर के बल नर नारी.
छपपर तो ज़मीन पर रहता, घोड़ा पीछे आगे गाड़ी.
नाव चलाते मरुस्थलों मे, सांझ जागते सोते तड़के.
पाँच बरस तक रहते बूढ़े, साठ बरस मे बनते लड़के.
सुनती आँख कान देखते, नीक बाबू कुर्सी उपर.
चद जाती पहाड़ पर नदियाँ, सिंधु झील से निकल निकल कर.
एक बात का वहन बड़ा सुख, पड़ते गुरु पदाते चेले.
मौज उड़ाते बेथे भिखारी, शहंशाह चलाते ठेले.
रही ज्यू के टयूँ रह जाते और चला करती है डगरी.
उल्टी सारी वस्तु जहाँ की देखी ऐसी उल्टी नगरी.
उल्टी दुनिया उल्टा पर्वत्, उल्टे पेड़ चिमनिया उल्टी.
देती दूध चींटियाँ ख़्ररहे हल खींचे, चूहे हलवाहे.
पैसा दुर्लभ, सुलभ अशरफ़ी, भोजन सबको खाना चाहे.
दाड़ी मूंछ रखें औरतें, मर्द खिलाते घर मे बच्चे.
रहते लोगों मे मकान ही, झूठे जीते मरते सच्चे.
सर पर जूता पगड़ी पेरो में, मच्छ्रर की है बनी सवारी.
दिंन मे चाँद चमकता, सूरज सारी रात करे उजियारा.
जलता पानी, आग बुझाती, चलते सर के बल नर नारी.
छपपर तो ज़मीन पर रहता, घोड़ा पीछे आगे गाड़ी.
नाव चलाते मरुस्थलों मे, सांझ जागते सोते तड़के.
पाँच बरस तक रहते बूढ़े, साठ बरस मे बनते लड़के.
सुनती आँख कान देखते, नीक बाबू कुर्सी उपर.
चद जाती पहाड़ पर नदियाँ, सिंधु झील से निकल निकल कर.
एक बात का वहन बड़ा सुख, पड़ते गुरु पदाते चेले.
मौज उड़ाते बेथे भिखारी, शहंशाह चलाते ठेले.
रही ज्यू के टयूँ रह जाते और चला करती है डगरी.
उल्टी सारी वस्तु जहाँ की देखी ऐसी उल्टी नगरी.
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