Friday, August 22, 2008

तुझे किया कहूं अए ज़िन्दगी...

तुझे किया कहूं अए ज़िन्दगी , तेरे एक पल की खबर नहीं
में करून यकीन भी तो किस तरहां , तेरी शब् की कोई सहर नहीं
मेरी खुवैशूं का यह सिलसिला , है खान तक यह खबर नहीं
यह सफ़र सदी पे मुहीत है , मेरी उम्र एक पहर नहीं

जहां दो घडी का सकूं मिले ,तेरी राह मैं वोह शजर नहीं
मै थकान से चूर हूँ इस कदर , कोई साया हद-इ- नज़र नहीं
वोह जो इश्क -इ -खून से हो आशना , कहिएं ऐसा दधा तर नहीं
मेरे दिल से भर के जला हु जो , यहाँ ऐसा कोई जिगर नहीं

तेरी काज आदी सितम गेरी . कोई यह बताये किदर नहीं
तो है बे वाफी की दास्तान . गिला तुझ से कोई मगर नहीं
तुझे छोड़ना है तो छोड़ दे , मुझे मौत का कोई डर नहीं
वोह अंधेर नगरे है गर कोई , यह भी रातों का डगर नहीं

Monday, August 18, 2008

डा. अहमद अली बर्की़ आज़मी की तीन ग़ज़लें

१ सता लें हमको, दिलचस्पी जो है उनकी सताने में
हमारा क्या वो हो जाएंगे रुस्वा ख़ुद ज़माने में

लड़ाएगी मेरी तदबीर अब तक़दीर से पंजा
नतीजा चाहे जो कुछ हो मुक़द्दर आज़माने में

जिसे भी देखिए है गर्दिशे हालात से नाला
सुकूने दिल नहीं हासिल किसी को इस ज़माने में

वो गुलचीं हो कि बिजली सबकी आखों में खटकते हैं
यही दो चार तिनके जो हैं मेरे आशियाने में

है कुछ लोगों की ख़सलत नौए इंसां की दिल आज़ारी
मज़ा मिलता है उनको दूसरों का दिल दुखाने में

अजब दस्तूर—ए—दुनिया— ए —मोहब्बत है , अरे तौबा
कोई रोने में है मश़ग़ूल कोई मुस्कुराने में

पतंगों को जला कर शमए—महफिल सबको ऐ 'बर्क़ी'!
दिखाने के लिए मसरूफ़ है आँसू बहाने में.


२ नहीं है उसको मेरे रंजो ग़म का अंदाज़ा
बिखर न जाए मेरी ज़िंदगी का शीराज़ा

अमीरे शहर बनाया था जिस सितमगर को
उसी ने बंद किया मेरे घर का दरवाज़ा

सितम शआरी में उसका नहीं कोई हमसर
सितम शआरों में वह है बुलंद आवाज़ा

गुज़र रही है जो मुझपर किसी को क्या मालूम
जो ज़ख़्म उसने दिए थे हैं आज तक ताज़ा

गुरेज़ करते हैं सब उसकी मेज़बानी से
भुगत रहा है वो अपने किए का ख़मियाज़ा

है तंग का़फिया इस बहर में ग़ज़ल के लिए
दिखाता वरना में ज़ोरे क़लम का अंदाज़ा

वो सुर्ख़रू नज़र आता है इस लिए 'बर्क़ी'!
है उसके चेहरे का, ख़ूने जिगर मेरा, ग़ाज़ा


३ दर्द—ए—दिल अपनी जगह दर्द—ए—जिगर अपनी जगह
अश्कबारी कर रही है चश्मे—ए—तर अपनी जगह

साकित—ओ—सामित हैं दोनों मेरी हालत देखकर
आइना अपनी जगह आइनागर अपनी जगह

बाग़ में कैसे गुज़ारें पुर—मसर्रत ज़िन्दगी
बाग़बाँ का खौफ़ और गुलचीं का डर अपनी जगह

मेरी कश्ती की रवानी देखकर तूफ़ान में
पड़ गए हैं सख़्त चक्कर में भँवर अपनी जगह

है अयाँ आशार से मेरे मेरा सोज़—ए—दुरून
मेरी आहे आतशीं है बेअसर अपनी जगह

हाल—ए—दिल किसको सुनायें कोई सुनता ही नहीं
अपनी धुन में है मगन वो चारागर अपनी जगह

अश्कबारी काम आई कुछ न 'बर्क़ी'! हिज्र में
सौ सिफ़र जोड़े नतीजा था सिफ़र अपनी जगह

Thursday, August 7, 2008

$$$$$ नेता जी $$$$$

झागरों शे अब करो किनारा
डूब रहा है देश हमारा !!

सी. डी. के झूठ पर्दों से
वक्त फिरे है मारा-मारा !!!!

चोर इधर से उधर गये हैं
सोना मत अब पहरेदारों !!

घना अंधेरा मंगाई का
घर से चला गया उजियारा!!!!

एक कयामत बरपा होगी
भूख ने जब लोगों को मारा!!

ये मत भूलो काठ की हंडिया
चरड्टी नहीं फिर से दोबारा!!

लावा बन कर इन्हे बता दो
बहुत हो चुका खेल तुम्हारा!!

इंक़लाब की आग मे जलकर
अंजुम बन जा एक सितारा!!!!